हिन्दु - मुस्लिम- ईसाई के बीच टकराव व समाधान

           सुषुप्ति ( गाढ निद्रा) में जैसे सब कुछ भूल जाते है व सुखी महसूस करते है उसी प्रकार जागृत अवस्था में सब भूल जाता है तो वह व्यक्ति विचार रहित या निर्विकल्प हो जाता है। यही समाधि अवस्था है। यही अंतिम ध्यान है। वास्तव में एकेश्वरवाद में आत्म बोध व ईश्वर दर्शन को mix कर दिया है। आत्म ज्ञान का अनुभव सबको एक जैसा होता है। जब मन विचार रहित हो जाता है तो समाधि में स्थिती होती । जैसे नींद सबको एक जैसी आती है वैसे ही  समाधि में सबकी स्थिती एक जैसी होती है। नींद में व्यक्ति बेहोशी में सुख अनुभव करता है व समाधि में होश में रहकर निराकार व अनन्त सुख का अनुभव करता है। यही ब्रह्म ज्ञान/आत्म बोध है। समाधि का जब लम्बे समय तक अभ्यास होता है तो मन की स्थिरता शरीर में उतर जाती है । तन मन की स्थिरता से व्यक्ति की आयु बढ जाती है और वह अमरता की ओर अग्रसर हो जाता है। अमरता के उच्च शिखर पर भगवान शिव, विष्णु, गणेश, सूर्य व दुर्गा देवी स्थित है। कम स्थिरता वाले व्यक्ति स्वर्गलोक व अन्य लोकों के देवी व देवता का पद थारण करते है। सामान्य स्थिरता वाले व्यक्ति पृथ्वी लोक में आते हैं।

         धर्म में आत्म ज्ञान का अनुभव व परमात्म दर्शन दो प्रमुख पक्ष है। इस्लाम व ईसाई में शायद ये दोनों पक्ष ही नदारद है। वहां न तो ईश्वर का स्पष्ट विवरण न ही आत्म बोध का रास्ता उपलब्ध है। दूसरा गुण,  अवगुण व आचरण जैसा स्पष्ट विवेचन इस्लाम व ईसाई में नहीं है। इस्लाम/ ईसाई की मूल समस्या यह है कि वहां अल्लाह / God के स्वरूप का वर्णन या परिभाषा अधूरी है जिस दिन यह पूर्ण रूप से परिभाषित होगी उस दिन इस्लाम/ ईसाईयत से उत्पन्न सारी समस्याएं समाप्त हो जायेगी।  कुरान/ बाईबल में परिभाषा स्पष्ट नहीं है। अल्लाह/ God का क्या स्वरूप है। वह स्त्री है या पुरुष या कुछ और।  दूसरा इस्लाम/ईसाई का उद्देश्य स्पष्ट नहीं है क्योंकि वहां कोई ब्रह्म ज्ञानी/ तत्व दर्शी व्यक्ति नहीं हुआ जो लोगों को आत्म बोध/ ब्रह्म सुख तक पहुंचा सके। उद्देश्य स्पष्ट न होने से वे आत्म सुख से वंचित रह गये जिससे इन पर उन्माद व डिप्रेशन हावी है जो हिंसा में परिनीत होती है और वो लोग टोली बनाने व धर्म परिवर्तन करवानेें में लगे हैं। इनको आत्म ज्ञान व तत्व बोध का ज्ञान देना जरूरी है। 

वास्तव में अल्लाह शब्द आह्लाद से बना है जिसका अर्थ है मानसिक संतोष है लेकिन इस्लाम में अल्लाह शब्द उपयोग कभी व्यक्ति के रूप में करते है व उन्हे सृजनकर्ता मानते फिर कहते हैं कि अल्लाह सातवे आसमान पर उपस्थित है लेकिन स्त्री है या पुरुष यह पता नहीं है । कभी कहते हैं कि अल्लाह निराकार है। वो व्यक्ति/ मूर्ति को नहीं मानते हैं।  वास्तव में कुरान का रचियता स्वयं ऊहापोह की स्थिती में है। मोहम्मद साहब ब्रह्म ज्ञानी व्यक्ति नहीं थे वे संदेश वाहक थे इसलिए वो अल्लाह की  स्पष्ट परिभाषा नहीं दे पायें। कुरान में एक शब्द बुतशिकन है जिसका अर्थ मन में विचारों से उत्पन्न आकृतियों का त्याग करना है ताकि समाधि के सुख का अनुभव कर सकें लेकिन नासमझ लोग मूर्ति से घृणा करना व उसको तोड़कर खुश होते हैं।

        इस्लाम में पुनर्जन्म की मान्यता ज्यादा है कि मरकर जन्नत/स्वर्गलोक जायेगॅ व उंचे भोग व सुख को भोगने का विचार कुरान में है लेकिन स्वर्गलोक में 8 महीने का दिन होता है व 4 महीने की रात होती है। पृथ्वी पर 24 घंटे में तीन बार सोने वाला व्यक्ति 8 महीने कैसे जागेगा। भोजन पृथ्वी पर दिन में दो बार करते हैं वहां तो एक साल में दो बार भोजन मिलेगा । स्वर्गलोक में बहुत बडा तपस्वी जो भूख व नींद को 3-4 महीने रोक सके वो ही पहुंच सकता है। अन्यथा नहीं।

  आप इसे seriously समझना चाहेगें तो कभी समय हो तो आइए बैठकर विचार-विमर्श करते है। 

सनातन धर्म में वर्ण व्यवस्था है पर इसमें वर्णोन्नति का विधान नहीं है जिससे शूद्र, अन्त्यज व वनवासी लोगों में उपस्थित सत्पुरूषों को बराबरी का अधिकार नहीं मिलता है। वर्ण मे विद्वान व सत्पुरूषों की वर्णोन्नति होनी चाहिए ताकि सभी ब्रह्म ज्ञानी होकर ब्रहाम्न्त्व को प्राप्त कर सके। इसके लिए परीक्षा या शास्त्रीय ज्ञान व गुण विशेष का 12 वर्ष तक पालन करे तो एक वर्ण से दूसरे वर्ण में पदोन्नत होना चाहिए।  वर्ण व्यवस्था से शूद्र, अन्त्यज, दलित, आदिवासी व अवर्ण के लोगो का पालन पोषण तो हुआ है। वर्ण में वर्णोन्नति या अवनति होनी चाहिए।

          खेल सारा तन मन की स्थिरता का है।जिसकी जितनी ऊंची स्थिरता उसकी उतनी ऊंची स्थित। ऊंची स्थिरता के व्यक्ति राग-द्वेष मिटाने के लिए भोगों का सेवन करते है। जब स्थिरता भंग होती है तो वे भोगों का त्याग कर देते है। जैसे भोजन, व्यायाम व ध्यान आदि नियमों का दृढ़संकल्प पूर्वक पालन करते है। कम स्थिरता वाले व्यक्ति भोग भोगते समय उनकी नकल करतें हैं व नियम पालन दृढ़संकल्प होकर नहीं करते हैं व उनका शारीरिक व आर्थिक पतन हो जाता है अतः किसी की नकल न करके खुद की क्षमता के अनुरूप कार्य करना चाहिए।  

मन जब निर्विकल्प/ निर्विकार हो जाये तो मन स्थिर हो जाता है व ब्रह्म ज्ञान हो जाता है, शांत व निराकार अनुभव करता है। जब शरीर स्थिर हो जाता है तो उम्र बढ़ जाती है। कभी तो व्यक्ति अमर हो जाता है व शरीर निर्गुण में चला जाता है। भगवान शंकर को इसलिए निर्गुण निराकार दोनो कहा जाता है। 

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